(1) साइकिल संगीत: परिचय
पंकज खन्ना
9424810575
साइकिल संगीत की अगली पिछली ब्लॉग पोस्ट्स:
(1) साइकल संगीत-परिचय (3/6/2025)
(2) सावन के नज़ारे हैं। (खजांची 1941) 15/8
(3) ओ दूधवाली ग्वालनिया (सीधा रास्ता 1947) 23/8
(4) ए मोहब्बत उनसे मिलने ( बाजार 1949) 29/8
(5) मेरे घुंघर वाले बाल ( परदेस 1950) 3/9
(6) एक दिन लाहौर की ठंडी (सगाई 1951) 10/9
साइकल संगीत: परिचय
(पानी में सैकल नै डालो!)
हमारी छोटी सी दुनिया अधिकतर घूमते पहियों और संगीत से प्रभावित रही है। इस 'सनक' को आप हमारे ब्लॉग त्रयी (Blog Trilogy) को पढ़कर अच्छे से समझ सकते हैं : (1) तवा संगीत (2) रेल संगीत और अब (3) साइकल संगीत।
सबसे पहली सीरीज तवा संगीत में घूमते तवे ( 78 RPM Shellac Records) और संगीत की काफी चर्चा कर चुके हैं, और आगे भी करते रहेंगे।
दूसरी सिरीज रेल संगीत में रेल के संगीतमय घूमते पहिए की दुनिया देख चुके हैं। इस रेल संगीत पर भी लिखाई सतत् जारी है।
वर्ल्ड साइकल डे (3 जून, 2025) के अवसर पर आज से घूमते पहिए और संगीत की इस तीसरी ब्लॉग सिरीज़ 'साइकल संगीत' का शुभारम्भ कर रहे हैं।
साइक्लिंग और संगीत दोनों ही शौक हों तो जीवन में तरंग बनी रहती है। लेकिन याद रहे दोनों हरकतों को मिलाना नहीं है। संगीत अलग से सुनें और साइक्लिंग अलग से करें! साइकिल चलाते हुए कान में कौवे नहीं बैठाने हैं। संगीत घर जाकर ही सुनना है। तमीज़ से सुनना है!
( छटाक भर लिपस्टिक और डेढ़ सौ ग्राम मेकअप पोती हुई बेसुरी आंटियों को स्टार मेकर पर साथ में बैठाकर गाना तो बिल्कुल ही नहीं है। समझे!?)😀🙏
प्रभु के आशीर्वाद से हमने साइकल चलाना कभी छोड़ा ही नहीं। सन 1972 में दस साल की काफी बड़ी उम्र में सबसे पहले कैंची दांव लगाकर साइकल चलाई थी। तब से लेकर आज तक साइकल यात्राएं जारी हैं। कोविड के बाद तो साइकल को काफी इज्ज़त मिलने लगी है। हमने तो उस दौर में भी साइकल का बहुत लुत्फ उठाया है जब साइकल गरीबी की पहचान थी। आज से कुछ सालों पहले तक, कुछ परिचित हमें साधारण साइकल चलाते देखकर ऐसे विजयी भावों से देखा करते थे मानों पूछ रहे हों: इतने बुरे दिन आ गए!?
साइकल और संगीत का साथ आज भी बना हुआ है। देश के लगभग सभी कोनों में, पहाड़ों पर और जंगलों में भी साइकल चलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। साइक्लिंग के किस्से हजार हैं। इस ब्लॉग सिरीज़ में कुछ किस्से भी साथ-साथ सुनाए जाएंगे। साइकल पर बने 100 से अधिक गाने तो सुनेंगे ही, अगली पोस्ट से।
बचपन में साइकल पहली बार चला कर माता-पिता, भाई-बहन, और दोस्तों को प्रभावित करने की कोशिश की थी। सब की प्रतिक्रिया एक समान थी: तो कौन सा तीर मार लिया रे तूने! सभी बच्चे चलाते हैं। छोटी उम्र के बच्चे भी चलाते हैं। तुझसे तो अच्छी ही चलाते हैं। साइकल चलानी तो आनी ही चाहिए!
सबने एक झटके में हवा निकाल दी। जमीन पर आ गए। बड़ा फायदा हुआ। फिर जमीन से ही जुड़े रहे।
आजकल तो बच्चों के पहले पेडल मारते ही माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी निहाल हो जाते हैं, होटलों में पार्टी करते हैं, रीले बनाकर फेसबुक, इंस्टाग्राम, WhatsApp और क्लाउड में जमा कर देते हैं। बच्चों को अमर कर देते हैं। और खुद को भी।
हम उद्दंड लेकिन सामान्यतः आज्ञाकारी बच्चे सूरज कंपाउंड (पारसी मोहल्ला, इंदौर) के छोटे से 'मैदान' में साइकल चलाया करते थे। मैदान के एक कोने में एक छोटे से गड्ढे में एक सार्वजनिक नल था जहां से मोहल्ले की आंटियां और बहनें पानी भरा करती थीं। ये मोहल्ले वाला छोटा सा पनघट था। मोहल्ले में शरीफ़ लोग रहते थे लिहाजा इस पनघट पर नंदलाल छेड़ते नहीं थे।
(आजकल की लड़कियों को कोई न छेड़े तो वो या तो डिप्रेशन में जाएंगी या फिर ब्यूटी पार्लर में। छिड़ना जरूरी है!)
इस सार्वजनिक नल से काफी पानी व्यर्थ भी बह जाता था और आस-पास जल भराव हो जाता था। छोटे मोटे गड्ढे (Puddles) बन जाते थे। हिंदी में जिन्हें जलज गर्तिका कह सकते हैं। Puddles शब्द से ही काम चला लेते हैं, भिया!
इन Puddles में छप-छप-छपाक से साइकल चला कर गंदे पानी को एक दूसरे पर उड़ाने में बहुत मज़ा आता था। गंदे पानी के छींटे महिला समिति के भांडे बर्तनों पर भी पड़ जाते थे। अधिकतर आंटियों, बहनों को इससे कोई मतलब नहीं रहता था। वो अपनी गप्पों में मस्त रहती थीं। लेकिन अत्यधिक सफाई पसन्द आदरणीय स्वर्गीय काकूबाई गुस्सा हो जाती थीं और जोर से डांटती थीं: पानी में सैकल नै डालो!
हम बच्चे डर जाते थे और फिर Puddles में सैकल नै डालते थे। बिल्कुल नै डालते थे।
लेकिन काकूबाई के वहां से निकलने के बाद फिर उन्हीं Puddles में से साइकिलों को निकालकर जोर से हंसते और चिल्लाते थे: पानी में सैकल नै डालो! पानी में सैकल नै डालो!
आज भी Puddles में से साइकिल निकालते हुए ये सब याद आ जाता है और गंदे पानी से सनने के बाद मन बहुत जोर से और उल्लास से चिल्ला उठता है: पानी में सैकल नै डालो! पानी में सैकल नै डालो!
(ये डिटर्जेंट कंपनी वाले अब बोलने लगे हैं : दाग अच्छे हैं। हमें तो बचपन से मालूम है! लेकिन ये अब जाकर समझ आया है कि डिटर्जेंट कंपनियों के लिए दाग कुछ ज्यादा ही अच्छे हैं!)
आप भी कभी, अकेले या ग्रुप में, पानी भरे गड्ढों से साइकिल निकालकर चिल्लाइए: पानी में सैकल नै डालो! बहुत आनंद आएगा। बता रहे हैं!
कहानी को थोड़ा फास्ट फॉरवर्ड में ले लेते हैं और कुछ बड़े हो जाते हैं। हाइ स्कूल की उम्र में पहुंचे तो लड़कियों को देखकर साइकिल पर 'स्टंट' दिखाने की कोशिश की। कभी किसी ने पलटकर नहीं देखा! कॉलेज (SGSITS Indore) में गए तो लगा अब शायद हमारे बेल-बूटे वाले बेहतरीन बेल बॉटम और बड़े बेतरतीब बालों को देखकर कोई बला या बाला बहक कर बाइसिकल पर लिफ्ट मांग बैठेगी! कोई जनम-जली, करम-जली हम से कभी लिफ्ट नहीं मांगी! कसम से!
बेलबॉटम के साथ आगे के सारे बाल भी जा चुके हैं। पीछे सिर्फ सफेद बालों की एक पतली सी झालर, हॉफ प्लेट बारीक सेंव के समान, बची है। लेकिन आज भी हम बड़ी उम्मीद और ऊर्जा से साइकिल चला रहे हैं!
आज बस इतने ही हैं हमारे हिस्से के मुख्तसर किस्सेl
अंत में हाफिज जालंधरी की लिखी और मल्लिका पुखराज की गाई गैर फिल्मी ग़ज़ल अभी तो मैं जवान हूं (1935 और 1940 के बीच में रचित) के एक अंतरे पर गौर फरमाएं:
(मुख्तसर = संक्षिप्त, नुक़्ता-ए-नज़र= दृष्टिकोण)
चलो जी क़िस्सा-मुख़्तसर
तुम्हारा नुक़्ता-ए-नज़र
दुरुस्त है तो हो मगर
अभी तो मैं जवान हूँ।
अभी तो मैं जवान हूँ! साइकिल चलाऊंगा। खूब चलाऊंगा, प्रभु इच्छा रही तो! और हर थोड़े दिनों में एक-एक करके साइक्लिंग पर बने सारे हिंदी फिल्मी गाने भी सुनवाऊंगा। अभी तो मैं जवान हूं!
पंकज खन्ना
9424810575
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मेरे कुछ अन्य ब्लॉग:
हिन्दी में:
तवा संगीत : ग्रामोफोन का संगीत और कुछ किस्सागोई।
रेल संगीत: रेल और रेल पर बने हिंदी गानों के बारे में।
साइकल संगीत: साइकल पर आधारित हिंदी गाने।
तवा भाजी: वन्य भाजियों को बनाने की विधियां!
मालवा का ठिलवा बैंड: पिंचिस का आर्केस्टा!
ईक्षक इंदौरी: इंदौर के पर्यटक स्थल। (लेखन जारी है।)
अंग्रेजी में:
Love Thy Numbers : गणित में रुचि रखने वालों के लिए।
Epeolatry: अंग्रेजी भाषा में रुचि रखने वालों के लिए।
CAT-a-LOG: CAT-IIM कोचिंग।छात्र और पालक सभी पढ़ें।
Corruption in Oil Companies: HPCL के बारे में जहां 1984 से 2007 तक काम किया।
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